Sunday, December 4, 2011

सहनशीलता बुज़दिली नहीं है

 ज़िन्दगी की अनसुलझी पहेलियों के बीच खुद को तलाश करती उम्मीदें, इन उम्मीदों को पूरा करने की ख्वाहिश और इन सबके बीच अकेलेपन से जूझते इंसान का अंतर्मन। कभी-कभी हताश भी हो जाता है।अपने आसपास वह ऐसे लोगों को ढूंढता है जिसको वह अपना कह सके। जो उसे समझ सके, उसके अंतर्मन में मची हलचल को समझ सके, लेकिन दुर्भाग्य है कि इस मतलबी दुनिया में ऐसे लोग कम ही मिलते हैं। लिहाजा अकेलेपन की टीस उसे सालती है। ‘भीड़ में अकेला रहना सीखो’ जैसी नीतिगत बातें सुनने में भले ही अच्छी लगती हों, और हो सकता है कि यह सच भी हो लेकिन वास्तविक जीवन में उसे उतार पाना इतना आसान नहीं होता। हममें से हर कोई भीड़ में एक साथी की तलाश करता है जिसके कन्धों पर सर रखकर वह इत्मीनान से सो सके। इसे इंसानी फ़ितरत कहें या  उसका स्वभाव, होता यही है। लेकिन सवाल यह नहीं है सवाल यह है कि जिस कंधे पर सर रखकर आप इत्मीनान से सो रहे हैं,वह कंधा अचानक से हट जाए तो क्या करें? कुछ लोग कहते हैं कन्धों की कमी नहीं है, दूसरा ढूंढ लेना चाहिए। लेकिन यह इतना आसान नहीं होता।
इस तस्वीर का दूसरा पहलु भी है जब कोई इंसान अपने ही द्वारा बनाए गए रिश्तों के टूटने से लगे झटके से उबरने की कोशिश करता है तो उसे समझौतों का सहारा लेना पड़ता है। ये समझौते कभी-कभी उन गलतियों के लिए भी माफ़ी मंगवा देते हैं जो उसने की ही नहीं। ऐसा करना चाहिए या नहीं यह अलग सवाल है। यहीं परख होती है उस इंसान के सहनशीलता की। अपने ऊपर लगे आरोपों का किस धैर्य के साथ आप जवाब देते हैं उसकी पहचान यहीं होती है। लेकिन सवाल है अगर कोई व्यक्ति अपमान, ज़िल्लत, जलालत, निंदा, शिकायत सबकुछ सुनकर और समझकर भी चुप रहता है तो क्या वह बुज़दिल है? इस दुनिया के  अमान्यकारी नियमों के बंधन उस व्यक्ति की सहनशीलता को बुज़दिली की संज्ञा देता हैं। अकेलेपन और एकाकीपन से हर आदमी को डर लगता है। इस डर से घबराकर अगर कोई सबकुछ सहन करता है तो वह बुज़दिल नहीं है। मनुष्य सामाजिक प्राणी है और समाज से कटकर जीना उसके लिए संभव नहीं है। हालाँकि सहनशील होने का यह मतलब कतई नहीं है वह कुछ कर नहीं सकता। लेकिन इस सच को जानना बहुत कम लोग चाहते हैं।
दरअसल यहाँ हर कोई खुद को श्रेष्ठ साबित करना चाहता है। अपनी काबिलियत पर गौर किये बिना बड़ा बनने का सपना देखना बुरी बात नहीं लेकिन उसे पाने के जो हथकंडे अपनाए जाते हैं,प्रश्नचिन्ह उसपर लगता है। और इसका सबसे दुखद पहलु तब होता है जब ये इंसानी रिश्तों को झकझोरते हैं।
हर इंसान प्यार चाहता है। सबकी चाहत होती है कि कोई उसे प्यार करे। लेकिन साथ ही प्यार में निःस्वार्थता भी होनी चाहिए। यही चीज़ इंसानों को जानवरों से अलग करती है लेकिन बड़े ही अफ़सोस के साथ इस कड़वे सच को स्वीकार करना पड़ रहा है कि वर्तमान सामाजिक अवधारणा में प्यार के जो मायने हैं वह जानवरों से भी बदतर हैं। उसपर से दुर्भाग्यपूर्ण ये कि इंसानी समाज को इसमें कोई आपत्ति नहीं है। लेकिन लाख टके का सवाल यह है कि अपनों तक सीमित सोच और उसमे भी वैमनस्य का वर्चस्व हो तो मनुष्य क्या वास्तव में मनुष्य कहलाने लायक है?
गिरिजेश कुमार

Saturday, November 26, 2011

बदल जाती हैं रिश्तों में प्राथमिकताएँ

यह सच है कि हमें हर वक्त किसी न किसी की ज़रूरत होती है। फिर चाहे वह ज़िन्दगी में गम का तूफान हो या खुशियों का मेहमान। लेकिन सवाल यह है कि ज़रूरत पूरी होने के बाद क्या हमें प्राथमिकताएँ बदल लेनी चाहिए? अपनी ज़िंदगी में हम किसे जगह देंगे और किसे नहीं यह फैसला बेशक हमारा है लेकिन यह बात समझ में नहीं आती कि आज जो व्यक्ति किसी का सबकुछ है कल उसकी शक्ल से भी नफ़रत क्यों करने लगते हैं? इंसानी रिश्तों में स्वार्थ पनपने से रिश्ते खराब होते हैं यह सर्वविदित सत्य है,लेकिन इरादों को भापें बिना सिर्फ़ ग़लतफ़हमी में पड़कर किसी रिश्तों को ठुकरा देना क्या उचित है? फिर चाहे वह दोस्ती का पवित्र रिश्ता हो या साथ जीने मरने का सम्बन्ध।
दरअसल बदलते परिवेश में हम आधुनिक होना चाहते हैं। और हमारे समाज में आधुनिकता का मतलब सिर्फ़ दिखावा भर होता है। रविंद्रनाथ टैगोर की कहानी “स्त्रीरेर पत्र” (पत्नी का पत्र) में रविन्द्रनाथ ने एक ऐसी स्त्री की तस्वीर दिखाई है जो समाज में टूटते हुए रिश्तों के झटके को सहन नहीं कर पाती है। वह ऐसे समाज से  नाता तोड़ लेना चाहती है जहाँ इंसान की कोई इज्ज़त नहीं होती, जहाँ बिना शर्त प्यार भी पाया न जा सके। हालाँकि यह कहानी आज से वर्षों पहले लिखी गयी लेकिन इसके जीवंत पात्र आज भी हमारे समाज में हैं। टूटते रिश्ते और छीझते संबंध हमें अंदर से झकझोर देते हैं। दिल पे लगी चोट इंसान को अवसाद के उस गहरे भँवर में धकेल देता है जिसे सिर्फ़ वही समझ सकता है जो इसका भुक्तभोगी हो। लेकिन सवाल है वो परिस्थितियाँ कैसे बदले जो ऐसे हालात पैदा करती हैं?
इन सबकी जड़ में कहीं न कहीं हमारी सामाजिक व्यवस्थाएं हैं और उसे चलने के लिए बनाये गए कुछ पोंगापंथी नियम हैं। हम उस समाज में रहते हैं जो आधुनिकता का ढोंग तो रचता है लेकिन मानसिकता बदलना नहीं चाहता। कपड़ों की तरह रिश्तों को बदलना उसकी आदत हो गयी है। इसीलिए वो रिश्ते भी टूटते हुए नजर आते हैं जिसकी बुनियाद विश्वास पर टिकी हुई है। कुछ लोग इसके लिए पाश्चात्य संस्कृति को दोषी ठहराते हैं लेकिन दरअसल इसके लिए दोषी पाश्चात्य संस्कृति का अंधानुकरण है। इससे भी बड़ा सवाल यह कि क्या हमें खुद की कमियों और गलतियों का अहसास होता है? और सच मानिए सबसे अहम सवाल यही है। हमारी यह फ़ितरत होती है कि हम हर चीज़ के लिए दूसरों को दोषी ठहरा देते हैं लेकिन हमारी अपनी ज़िम्मेदारी भी बनती है जिसे समझना ज़रुरी है। क्योंकि आख़िरकार टूटते रिश्तों की कड़ियों को  जोड़ना या और तोड़ देना हमारा ही काम है।
आशा से अधिक अपेक्षा भी रिश्तों में दुरी का प्रमुख कारण है। इसका यह मतलब कतई नहीं है कि हमें अपेक्षाएं नहीं करनी चाहिए। रिश्तों की बुनियाद कितनी ही मजबूती से रखी गयी हो लेकिन उसकी जड़ें वास्तव में कितनी मजबुत हैं इसका ध्यान रखना भी ज़रुरी है। हालाँकि यह भी सच है कि परस्पर समझदारी के बावजूद भी कभी-कभी हमारे रिश्ते टूटते हैं। ऐसे में गलतियों पर पुनर्विचार ही एक मात्र रास्ता है। हमें यह भी भूलना नहीं चाहिए कि सबकुछ हमारे हाथ में नही होता। जहाँ रिश्तों और उसमे पड़ी दरारों की बात आती है वहाँ सामनेवाले की भी कुछ ज़िम्मेदारी बनती है।
इन सबके बीच कई बार ऐसा देखने, सुनने को मिला है कि सम्बन्धों के टूट जाने से कई लोगों ने खुद की ज़िंदगी ही खत्म कर ली। इसमें युवाओं की संख्या अधिक है और खासकर लड़कियां ऐसे कदम ज्यादा उठाती हैं। जबकि ऐसा करने की ज़रूरत नही है। हालाँकि अवसाद के दौर से गुजर रहे व्यक्ति के पास सोचने और सही कदम उठाने की समझ नही होती लेकिन फिर भी हमें हालात पर विचार तो करना ही चाहिए।
फिर हम यह क्यों भूल जाते हैं कि हमारा समाज इतना खुदगर्ज़ और आत्मकेंद्रित हो गया है कि उसे इन चीजों से फर्क नहीं पड़ता। ऐसे कुछ लोग हैं जो रिश्तों में प्यार,कद्र और अपनेपन  की तलाश करते हैं इसीको अपना जीवन समर्पित कर देते हैं लेकिन वहीँ ज्यादातर लोग अपनी ज़रूरत की पूर्ति को ही तवज्जो देते हैं। इन दोनों में सच क्या है इसका फैसला आपको करना है।
गिरिजेश कुमार

  

Sunday, July 10, 2011

रिश्तों के मायने इतने बौने क्यों?

'जनसंदेश टाइम्स' मे प्रकाशित
 पहले शादी का झाँसा देकर शारीरिक सम्बन्ध बनाया जब वह गर्भवती हो गई तो शादी से इनकार कर गर्भपात का भरोसा दिलाया, गर्भपात के दौरान स्थिति बिगड़ी तो मरने के लिए सड़क पर छोड़ दिया| जी, ये कहानी है 20 वर्षीय छात्रा प्रियंका की, जिसे नहीं पता था जिससे वो प्यार कर(रोहित राज) रही है वो उसकी मौत का कारण बनेगा| बिहार की राजधानी पटना मे ये दर्दनाक वाकया सामने आया है| इस घटना मे प्रियंका की सहेली तान्या, उसके ब्वॉयफ्रेंड मुकेश और अस्पताल की भूमिका भी सवालों के घेरे मे है| दरअसल सवाल सिर्फ प्रियंका का ही नहीं है| देश मे स्त्री विमर्श और स्त्रियों की स्थिति पर न जाने कितनी चर्चाएं होती हैं? आधी आबादी को सशक्त करने और उसको उसका अधिकार देने के हजारों दावे और वादे किये जाते हैं लेकिन इन दावों और वादों की हकीकत वास्तव मे क्या है इस घटना से एक बार फिर उजागर हो गया| हालाँकि यह पहला मौका नहीं है जब लड़कियां या महिलाऐं इस पुरुषप्रधान मानसिकता वाले समाज की शिकार हुई है| लेकिन हर बार सवाल उसी नजरिये का होता है जो इस समाज का महिलाओं के प्रति होता है| आधुनिकता और भौतिकता की चकाचौंध मे हमें सामाजिक सरोकार, आदर्श और प्यार नजर ही नहीं आता| हर प्रियंका की मौत मीडिया के लिए खबर बनती है तो समाज के लिए विमर्श का विषय लेकिन नतीजा सिफ़र ही रहता है| दरअसल सवाल यहीं से उठता है क्या हम निष्कर्ष पर पहुँचना चाहते हैं?
बदले हुए समाज मे प्यार के मायने भी बदल गए हैं| अब प्यार समर्पण और सादगी के लिए नही शरीर के लिए होता है| अगर इसका नाम ही आधुनिक होना है तो ऐसी आधुनिकता का मतलब क्या है? पश्चिमी सभ्यता की अंधी दौड़ मे हमने तथाकथित आधुनिकता की दुहाई देकर सिर्फ गलत चीजों को अपना लिया है| जिसका खामियाजा हमेशा से महिलाएं भुगतती रही हैं| हम अपनी सोच को बदलना ही नहीं चाहते|
आश्चर्य तब होता है जब पढ़े लिखे लोगों के संभ्रांत परिवारों मे ऐसी लोमहर्षक घटनाएँ सुनने को मिलती हैं| शिक्षित होने के बावजूद कैसे कोई लड़की इस समाज की गन्दी चालों को नहीं समझ पाती है और खुद की जान गँवा बैठती है? यह भी शोध का विषय है| इन सबमे  सबसे ज्यादा दुखद यह है कि हमारा समाज ऐसी घटनाओं को भी होनी और भगवान की मंजूरी समझ कर सबकुछ स्वीकार कर लेता है| भाग्य मे लिखा हुआ कभी मिटता नहीं, जैसे आधारहीन और अविश्वासी तर्कों को मानकर हम सच और अपने अधिकार के लिए भी नहीं लड़ पाते जिसका नाजायज फायदा ऐसे कुकर्मों को अंजाम देने वाले उठाते हैं| इस विकट परिस्थितियों के मकड़जाल को काटने के लिए कौन सा हथियार इस्तेमाल किया जाए यह गंभीर विमर्श का विषय है?
एक तरफ़ सामाजिक अंतर्विरोध है, जहाँ लड़कियां बदनामी की डर से हर जुल्म को सहती रहती हैं, इसका खामियाजा माँ बाप को भी भुगतना पड़ता है, तो दूसरी तरफ सामाजिक विषमताएँ हैं जहाँ स्त्री-पुरुष के हर रिश्तों को शक की निगाह से देखा जाता है| विषमताओं और अंतर्विरोधों मे फँसा भारतीय समाज विकास की लकीर को वर्षों पीछे धकेल देता है और विडंबना यह कि खुद यह समाज भी इस चीज़ को समझ नहीं पाता है|
ज़रूरत इस बात की है कि समाज अपनी इन खामियों को पहचाने| समाज के प्रबुद्ध लोगों की भूमिका महत्वपूर्ण है| ताकि फिर कोई रोहित रिश्तों के क़त्ल की  ऐसी हिमाकत न कर सके|

गिरिजेश कुमार

Wednesday, June 15, 2011

हमारी सोच का दायरा इतना सीमित क्यों है?

रिश्तों में प्यार नही, अहमियत रखता है पैसा

मनुष्य जब से पृथ्वी पर आया या कहें कि मनुष्य की उत्पत्ति जब से हुई तब से आज तक उसने अपने लिए तरक्की के हर रास्ते को अपनाने की कोशिश की| आदिम काल से आज तक विज्ञान से लेकर सामाजिक क्षेत्र में जितने भी आविष्कार हुए, ये उसी जिजीविषा का परिणाम है| मानव विकास के हर एक पीढ़ियों के अध्ययन से इस बात का पता चलता है कि हमने हमेशा से अपनी बेहतरी की बात सोची| इसी के परिणामस्वरुप समाजरूपी कॉन्सेप्ट आया और उसे सुचारू ढंग से संचालित करने के लिए नियम भी बनाये गए| समय बदला, हम तकनीकी तौर पर विकसित हुए, समाज विभिन्न वर्गों में बंटा लेकिन अफ़सोस कि सामाजिक संक्रमण का काल भी यहीं से शुरू होता है| जाति, लिंग, आर्थिक असमानता और न जाने किस-किस रूप में इस समाज ने अपने ही विनाश की बुनियाद खड़ी कर दी| चलते-चलते हम २१वीं सदी में पहुँच गए लेकिन हमारी मानसिक सोच का दायरा विकसित होने से महरूम रह गया| हमने विकास और तरक्की के नए आयाम तो ढूंढ़ लिए लेकिन अपनी सोच को उतना ही संकीर्ण रखा जब लड़कियाँ दूसरों के घर के लिए होती थी और महिलाओं को उपभोग की वस्तु समझा जाता था|

ये स्थिति दरअसल आज भी बनी हुई है| वर्तमान भारतीय समाज अभी भी उन रूढ़िवादी विचारों से ऊपर नहीं उठ पाया है जब लड़कियों और महिलाओं को समाज में खुलेआम घूमने, अपने विचार रखने की आजादी नहीं थी| जवान लड़की पिता की चिंता का कारण होती थी और उसे प्राथमिक शिक्षा से भी वंचित रखा जाता था| आज भी आप अगर आम भारतीय परिवारों के घर जाएँ खासकर उनके घर जिनके घर शादी के लायक लड़की है, तो उनका ज्यादातर समय इसी बात पर विचार करने में कटता है कि ये शादी कैसे होगी? अभी भी लड़की के पिता को लड़के वालों के यहाँ हाथ फैलाते हुए देखा जाता है और कहते सुना जा सकता है कि आप मेरी बेटी का उद्धार कर दीजिए, जैसे वो इश्वर से भी बड़े हों| और शादी भी तय होती है तो पैसों के लेनदेन पर| यानि रिश्तों में प्यार, सद्भाव नहीं पैसा अहमियत रखता है|

कारण है कि हमने अपने घर की लड़कियों को अपनी जिंदगी के फैसले लेने का अधिकार नहीं दिया| पुरुषप्रधान मानसिकता के चंगुल में जकड़े रखा| अंतरजातीय विवाहों को मान्यता नहीं दी और गलती से भी किसी ने ऐसा करने की हिम्मत दिखाई तो उसे सजा-ए-मौत का फरमान सुना दिया गया| अभी बिहार में इंटर की परीक्षाओं में 44 में 40 लड़कियों ने टॉप किया, सुनकर अच्छा लगा| किसी ने आई ए एस बनने की इच्छा ज़ाहिर की तो किसी ने प्रोफ़ेसर| अख़बारों के बैनर हेडलाइन बने और बड़े-बड़े अक्षरों में तारीफ़ के पुल बंधे गए लेकिन क्या इन प्रतिभाओं को निखरने का मौका मिलगा? बड़ा सवाल यही है| इसमें कोई शक नहीं है इनमे ज्यादातर की जिंदगी पति, परिवार और बच्चों की देखभाल करने में बीते क्योंकि हम यह समझते हैं कि लड़कियों का काम सिर्फ़ बच्चे पैदा करना है| ये स्थिति सिर्फ़ गांवों की नहीं है जहाँ ज्यादातर लोग अशिक्षित होते हैं| ये स्थिति उन शहरों में रहने वाले मध्यमवर्गीय परिवारों की भी है जिन्हें हम शिक्षित मानते हैं और खुले विचार रखनेवालों की श्रेंणी में रखते हैं|

खून के रिश्ते भी अस्तित्वहीन पैसों की बुनियाद पर तौले जाते हैं| इसलिए भाई-भाई का दुश्मन बना हुआ है और हमें अपने ही परिवार की तरक्की रास नहीं आती| यानि परम्पराओं में कैद रहकर हम अपने ही रिश्तों का क़त्ल उन पैसों के लिए करना चाहते हैं जिसका वास्तव में कोई अस्तित्व ही नहीं है| आखिर क्यों करते हैं हम ऐसा? और सबसे महत्वपूर्ण सवाल ये कि क्या हम और हमारा समाज इन तमाम अवरोधों को पारकर एक स्वस्थ, सुसज्जित और सुन्दर समाज में तब्दील हो पायेगा, जिसमे ऐसी घटिया और निम्नस्तरीय सोच के लिए कोई जगह न हो? आपकी भूमिका महत्वपूर्ण है|

गिरिजेश कुमार

Friday, April 29, 2011

यह कैसा समाज ?

आज देश के वर्तमान सामाजिक हालात पर नजर डालें तो यहाँ हर व्यक्ति इर्ष्या, द्वेष और पूर्वाग्रह से ग्रसित पाया जाता है| सामाजिक सद्भाव और आपसी भाईचारे के प्रतीक कहे जाने वाले इस देश को ना जाने किसकी नजर लग गई कि लोग एक दूसरे का गला घोंटने पर आमादा हैं| प्यार, प्रेम और ममता की बलि चढ़ा दी गयी और नफ़रत के पेड़ को सींचा जा रहा है| पञ्च को परमेश्वर का दर्ज़ा देने वाले इस देश में पंचों का फैसला अमानवीय और इंसानी रूह को कंपा देने वाला देखने को मिलता है|

प्राणियों में सबसे सर्वश्रेष्ठ मनुष्य को माना गया है| उसकी बुद्धि ही उसे दूसरे जीवों से अलग करती है लेकिन अफ़सोस इस बात का है इस बुद्धि का ही लोग गलत इस्तेमाल करने लगे हैं| परमपराओं में कैद हमारी सामाजिक संरचना इसे तोड़ने में नाकामयाब है और अगर किसी ने इसे तोड़ने की हिम्मत की तो तथाकथित सार्वजनिक फैसले की आड़ में उसकी आवाज सदा के लिए बंद कर दी जाती है|

लोग प्यार को सिर्फ हिकारत भरी नजर से देखते हैं उसके अंदर छुपे वात्सल्य को नजरंदाज कर देते हैं| अंतरजातीय विवाह को झूठे सम्मान और अस्तित्वहीन बदनामी से जोड़कर देखा जाता है| इसका सबसे ज्यादा खामियाजा युवाओं को भुगतना पड़ता है| न जाने कितने ही युवक युवतियां इस अंधे सामजिक प्रचलन का शिकार हुई हैं और कुछ ने सिर्फ आंसुओं को अपनी जिंदगी का जरिया बना लिया है| सवाल यह है कि इस दर्दनाक हालात को कितने लोग महसूस कर पा रहे हैं?

दरअसल हम दोष किसे दें –लोग, समाज या फिर सामाजिक व्यवस्था? समाज में जब भी कभी ऐसी अमानवीय कार्य किया जाता है दोष उस व्यवस्था को दिया जाता है लेकिन हम यह क्यों भूल जाते हैं कि इस व्यवस्था के नियमों को मनुष्य ने ही अपनी सुविधाओं के अनुरूप बनाया है फिर हमने ऐसे नियम क्यों बनाये जो इंसान से उसकी जिंदगी में फैसले लेने की आज़ादी ही छीन ले?

गिरिजेश कुमार

Wednesday, March 16, 2011

लड़कियों के साथ क्यों होता है भेदभाव?

हम उस समाज में रहते हैं जो तेजी से विकसित होना चाहता है, आसमान की उंचाईयों को छूना चाहता है| सपने देखना अच्छी बात है| एक सामाजिक प्राणी होने के नाते समाज के विकास की कल्पना और उसके ढांचों को विकसित करने की महत्वाकांक्षा हमारे अंदर होनी ही चाहिए| लेकिन सवाल है कैसे? क्या परम्पराओं और रूढिवादिता के चक्रव्यूह में फंसकर कोई समाज तरक्की कर सकता है?

ज़रा एक नजर सामाजिक स्थिति पर डालिए| हमारे देश में विकास का रास्ता गांवों की गलियों से होकर गुजरता है| हमारे गाँव आज भी उन संकुचित मानसिकताओं में जकड़ी हुई है जहाँ पुरुषों और महिलाओं के बीच एक दीवार खडी थी| हालाँकि यह भी सच है कि पुरुषों ने महिलाओं के बिना एक भी कार्य नहीं किया| हमारा उद्देश्य यहाँ पुरुषों और महिलाओं की स्थिति पर चर्चा करना नहीं है| लेकिन सवाल कहीं ना कहीं वहीँ लिंग आधारित भेदभाव पर आकर अटक जाता है जहाँ हम चर्चा को छोड़ना चाहते हैं| सवालों के घेरे में वो लड़कियाँ आती हैं जिनके अंदर आसमांन के असीमित आकाश में उड़ने की लालसा है| लेकिन माँ बाप की सीमित सोच उनके अरमानों को पंख नहीं लगने नहीं देते| लड़के और लड़कियों के साथ उनके मा बाप के द्वारा व्यवहार में भेदभाव उन्हें और पीछे धकेल रहा है| आज आज़ादी के छह दशकों बाद भी समाज की यह स्थिति हमें सोचने को मजबूर करती है| यही लड़कियों को आगे बढ़ने के दावों और उसके लिए किये जा रहे प्रयासों पर प्रश्नचिन्ह लगता दिखाई देता है| ज्यादातर माँ बाप की सोच यही रहती है कि उनके बेटी की शादी कहीं अच्छे घर में हो जाये| सवाल है लड़कियों का काम क्या पति , परिवार और ससुराल वालों की सेवा करना मात्र है? आखिर इस मानसिकता को कैसे बदला जाये जो लोगों के अंदर इस तरह से घर कर चुकी हैं कि बाहर निकलने का नाम ही नहीं लेता?

दरअसल असमानता पर आधारित इस समाज की सामाजिक संरचना ऐसी है कि लोग चाहकर भी अपने आप को उस सोच से मुक्त नहीं कर पाते जो उन्हें पीछे धकेलने के काम करती रही हैं| इतनी जिजीविषा समाज में किसी के अंदर नहीं दिखती जो उसी समाज के गंदे नियमों को जलाकर ख़ाक कर दे और बागी बन जाये| यह भेदभाव लड़कियों से होता है लेकिन पता नहीं लड़कियाँ ऐसा क्यों सोच लेती हैं वो लड़की है इसलिए कुछ नहीं कर सकती? इतिहास गवाह है विरोध में आवाजें उसी ने उठाई हैं जिसपर अत्याचार हुआ है| इसलिए यह सबसे ज्यादा ज़रुरी है कि अपने ऊपर हो रहे इस भेदभाव का विरोध वो खुद करें और अपना हक छीन कर हासिल करे, अन्यथा सदियों से सताई और पीछे धकेली गयी आधी आबादी अपने हक के लिए संघर्ष ही करती रह जायेगी यह पुरुष प्रधान समाज उसे उनके अधिकार नहीं देगा|

गिरिजेश कुमार

Sunday, March 13, 2011

ऐसा कौन है जिसकी जिंदगी में दुःख ना हो?

अक्सर समाज में ऐसे लोग मिल जाते हैं जो यह कहते हुए नज़र आते हैं कि हमारी जिंदगी में तो सिर्फ़ दुःख ही दुःख है| कभी भगवान को कोसते हैं तो कभी किस्मत को दोष देते हैं| हालाँकि ऐसा नहीं है कि वो झूठ बोलते हैं या दिखावे की कोशिश करते हैं| लेकिन कभी हम यह क्यों नहीं सोचते कि सामने वाला व्यक्ति हमसे भी ज्यादा ग़मों का पहाड ढोए जी रहा है? हमें तो बस यह लगता है कि वह व्यक्ति जो हमारे सामने खड़ा है उसकी ज़िंदगी में सबकुछ अच्छा हो रहा है| जबकि ऐसा नहीं है, दुनिया में कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं है जिसकी ज़िंदगी में दुःख ना हो| हर व्यक्ति किसी ना किसी वजह से दुखी है| तो फिर क्यों हम अपने दुःख को लेकर चिंतित रहते हैं? फिर हमें ऐसा क्यों लगता है कि दुनिया के सारे गम हमारी ही ज़िंदगी में समा चुके हैं?

दरअसल सोचने के ढंग और देखने के नजरिये में फर्क के चलते हमें ऐसा महसूस नहीं हो पाता| आप दुनिया को अपनी नजर से देखने की कोशिश करते हैं, इसलिए आपको अपनी चिंता हमेशा सताती है| दुनिया को दुनिया की नज़र से देखने की कोशिश कीजिये तो दूसरों के गम भी नज़र आयेंगे फिर आपको यह लगेगा कि इस पृथ्वी पर जीवों को इतने कष्ट झेलने पड़ते हैं, इतना दुःख उठाना पड़ता है कि उसके सामने हमारा गम तो कुछ भी नहीं है| हम तो बेकार चिंतित हो रहे थे|

दूसरी बात यह भी है कि परिस्थितियों से ही आदमी मजबूत बनता है| अगर आपके ऊपर ग़मों का पहाड टुटा है तो झेलना आपको ही पड़ेगा कोई पडोसी दर्द बाँट नहीं सकता| सांत्वना के दो शब्द कहने वाले इस मतलबी दुनिया में मिल जाएँ तो आप सबसे भाग्यशाली व्यक्ति हैं| और अगर झेलना आपको ही है तो फिर उस चिंता में अपना भविष्य खराब क्यों किया जाये?

जब परिस्थितियाँ विपरीत हों तब हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि मानव सभ्यता के शुरुआत से आज तक जितने भी युगों में संसार को बांटा गया है, उनमे से किस युग में समस्याएं नहीं रही? भगवान विष्णु के दस अवतारों की गाथा हम धर्मग्रंथों - पुराणों में पढते हैं लेकिन उनमे एक भी ऐसा युग नहीं रहा जब लोगों को परेशानियां नहीं झेलनी पड़ी, दुःख नहीं उठाना पड़ा| स्वयं मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम को भी वनवास जैसे घोर संकट से गुजरना पड़ा उसके बाड़ भी कठिनाईयाँ कम नहीं हुई| कृष्ण को भी विरह वेदना की अग्नि में जलना पड़ा था| फिर हम और आप तो एक साधारण से मनुष्य हैं| ये संसार एक नदिया है और दुःख-सुख इसके किनारे हैं| यह आते रहेंगे जाते रहेंगे इसलिए हमें दुःख को भी खुशी से गले लगाना चाहिए| सच्चा बहादुर मनुष्य तो वही है जो विपरीत परिस्थितियों में भी अपना धैर्य नहीं खोता|

गिरिजेश कुमार