Sunday, July 10, 2011

रिश्तों के मायने इतने बौने क्यों?

'जनसंदेश टाइम्स' मे प्रकाशित
 पहले शादी का झाँसा देकर शारीरिक सम्बन्ध बनाया जब वह गर्भवती हो गई तो शादी से इनकार कर गर्भपात का भरोसा दिलाया, गर्भपात के दौरान स्थिति बिगड़ी तो मरने के लिए सड़क पर छोड़ दिया| जी, ये कहानी है 20 वर्षीय छात्रा प्रियंका की, जिसे नहीं पता था जिससे वो प्यार कर(रोहित राज) रही है वो उसकी मौत का कारण बनेगा| बिहार की राजधानी पटना मे ये दर्दनाक वाकया सामने आया है| इस घटना मे प्रियंका की सहेली तान्या, उसके ब्वॉयफ्रेंड मुकेश और अस्पताल की भूमिका भी सवालों के घेरे मे है| दरअसल सवाल सिर्फ प्रियंका का ही नहीं है| देश मे स्त्री विमर्श और स्त्रियों की स्थिति पर न जाने कितनी चर्चाएं होती हैं? आधी आबादी को सशक्त करने और उसको उसका अधिकार देने के हजारों दावे और वादे किये जाते हैं लेकिन इन दावों और वादों की हकीकत वास्तव मे क्या है इस घटना से एक बार फिर उजागर हो गया| हालाँकि यह पहला मौका नहीं है जब लड़कियां या महिलाऐं इस पुरुषप्रधान मानसिकता वाले समाज की शिकार हुई है| लेकिन हर बार सवाल उसी नजरिये का होता है जो इस समाज का महिलाओं के प्रति होता है| आधुनिकता और भौतिकता की चकाचौंध मे हमें सामाजिक सरोकार, आदर्श और प्यार नजर ही नहीं आता| हर प्रियंका की मौत मीडिया के लिए खबर बनती है तो समाज के लिए विमर्श का विषय लेकिन नतीजा सिफ़र ही रहता है| दरअसल सवाल यहीं से उठता है क्या हम निष्कर्ष पर पहुँचना चाहते हैं?
बदले हुए समाज मे प्यार के मायने भी बदल गए हैं| अब प्यार समर्पण और सादगी के लिए नही शरीर के लिए होता है| अगर इसका नाम ही आधुनिक होना है तो ऐसी आधुनिकता का मतलब क्या है? पश्चिमी सभ्यता की अंधी दौड़ मे हमने तथाकथित आधुनिकता की दुहाई देकर सिर्फ गलत चीजों को अपना लिया है| जिसका खामियाजा हमेशा से महिलाएं भुगतती रही हैं| हम अपनी सोच को बदलना ही नहीं चाहते|
आश्चर्य तब होता है जब पढ़े लिखे लोगों के संभ्रांत परिवारों मे ऐसी लोमहर्षक घटनाएँ सुनने को मिलती हैं| शिक्षित होने के बावजूद कैसे कोई लड़की इस समाज की गन्दी चालों को नहीं समझ पाती है और खुद की जान गँवा बैठती है? यह भी शोध का विषय है| इन सबमे  सबसे ज्यादा दुखद यह है कि हमारा समाज ऐसी घटनाओं को भी होनी और भगवान की मंजूरी समझ कर सबकुछ स्वीकार कर लेता है| भाग्य मे लिखा हुआ कभी मिटता नहीं, जैसे आधारहीन और अविश्वासी तर्कों को मानकर हम सच और अपने अधिकार के लिए भी नहीं लड़ पाते जिसका नाजायज फायदा ऐसे कुकर्मों को अंजाम देने वाले उठाते हैं| इस विकट परिस्थितियों के मकड़जाल को काटने के लिए कौन सा हथियार इस्तेमाल किया जाए यह गंभीर विमर्श का विषय है?
एक तरफ़ सामाजिक अंतर्विरोध है, जहाँ लड़कियां बदनामी की डर से हर जुल्म को सहती रहती हैं, इसका खामियाजा माँ बाप को भी भुगतना पड़ता है, तो दूसरी तरफ सामाजिक विषमताएँ हैं जहाँ स्त्री-पुरुष के हर रिश्तों को शक की निगाह से देखा जाता है| विषमताओं और अंतर्विरोधों मे फँसा भारतीय समाज विकास की लकीर को वर्षों पीछे धकेल देता है और विडंबना यह कि खुद यह समाज भी इस चीज़ को समझ नहीं पाता है|
ज़रूरत इस बात की है कि समाज अपनी इन खामियों को पहचाने| समाज के प्रबुद्ध लोगों की भूमिका महत्वपूर्ण है| ताकि फिर कोई रोहित रिश्तों के क़त्ल की  ऐसी हिमाकत न कर सके|

गिरिजेश कुमार