Wednesday, March 16, 2011

लड़कियों के साथ क्यों होता है भेदभाव?

हम उस समाज में रहते हैं जो तेजी से विकसित होना चाहता है, आसमान की उंचाईयों को छूना चाहता है| सपने देखना अच्छी बात है| एक सामाजिक प्राणी होने के नाते समाज के विकास की कल्पना और उसके ढांचों को विकसित करने की महत्वाकांक्षा हमारे अंदर होनी ही चाहिए| लेकिन सवाल है कैसे? क्या परम्पराओं और रूढिवादिता के चक्रव्यूह में फंसकर कोई समाज तरक्की कर सकता है?

ज़रा एक नजर सामाजिक स्थिति पर डालिए| हमारे देश में विकास का रास्ता गांवों की गलियों से होकर गुजरता है| हमारे गाँव आज भी उन संकुचित मानसिकताओं में जकड़ी हुई है जहाँ पुरुषों और महिलाओं के बीच एक दीवार खडी थी| हालाँकि यह भी सच है कि पुरुषों ने महिलाओं के बिना एक भी कार्य नहीं किया| हमारा उद्देश्य यहाँ पुरुषों और महिलाओं की स्थिति पर चर्चा करना नहीं है| लेकिन सवाल कहीं ना कहीं वहीँ लिंग आधारित भेदभाव पर आकर अटक जाता है जहाँ हम चर्चा को छोड़ना चाहते हैं| सवालों के घेरे में वो लड़कियाँ आती हैं जिनके अंदर आसमांन के असीमित आकाश में उड़ने की लालसा है| लेकिन माँ बाप की सीमित सोच उनके अरमानों को पंख नहीं लगने नहीं देते| लड़के और लड़कियों के साथ उनके मा बाप के द्वारा व्यवहार में भेदभाव उन्हें और पीछे धकेल रहा है| आज आज़ादी के छह दशकों बाद भी समाज की यह स्थिति हमें सोचने को मजबूर करती है| यही लड़कियों को आगे बढ़ने के दावों और उसके लिए किये जा रहे प्रयासों पर प्रश्नचिन्ह लगता दिखाई देता है| ज्यादातर माँ बाप की सोच यही रहती है कि उनके बेटी की शादी कहीं अच्छे घर में हो जाये| सवाल है लड़कियों का काम क्या पति , परिवार और ससुराल वालों की सेवा करना मात्र है? आखिर इस मानसिकता को कैसे बदला जाये जो लोगों के अंदर इस तरह से घर कर चुकी हैं कि बाहर निकलने का नाम ही नहीं लेता?

दरअसल असमानता पर आधारित इस समाज की सामाजिक संरचना ऐसी है कि लोग चाहकर भी अपने आप को उस सोच से मुक्त नहीं कर पाते जो उन्हें पीछे धकेलने के काम करती रही हैं| इतनी जिजीविषा समाज में किसी के अंदर नहीं दिखती जो उसी समाज के गंदे नियमों को जलाकर ख़ाक कर दे और बागी बन जाये| यह भेदभाव लड़कियों से होता है लेकिन पता नहीं लड़कियाँ ऐसा क्यों सोच लेती हैं वो लड़की है इसलिए कुछ नहीं कर सकती? इतिहास गवाह है विरोध में आवाजें उसी ने उठाई हैं जिसपर अत्याचार हुआ है| इसलिए यह सबसे ज्यादा ज़रुरी है कि अपने ऊपर हो रहे इस भेदभाव का विरोध वो खुद करें और अपना हक छीन कर हासिल करे, अन्यथा सदियों से सताई और पीछे धकेली गयी आधी आबादी अपने हक के लिए संघर्ष ही करती रह जायेगी यह पुरुष प्रधान समाज उसे उनके अधिकार नहीं देगा|

गिरिजेश कुमार

Sunday, March 13, 2011

ऐसा कौन है जिसकी जिंदगी में दुःख ना हो?

अक्सर समाज में ऐसे लोग मिल जाते हैं जो यह कहते हुए नज़र आते हैं कि हमारी जिंदगी में तो सिर्फ़ दुःख ही दुःख है| कभी भगवान को कोसते हैं तो कभी किस्मत को दोष देते हैं| हालाँकि ऐसा नहीं है कि वो झूठ बोलते हैं या दिखावे की कोशिश करते हैं| लेकिन कभी हम यह क्यों नहीं सोचते कि सामने वाला व्यक्ति हमसे भी ज्यादा ग़मों का पहाड ढोए जी रहा है? हमें तो बस यह लगता है कि वह व्यक्ति जो हमारे सामने खड़ा है उसकी ज़िंदगी में सबकुछ अच्छा हो रहा है| जबकि ऐसा नहीं है, दुनिया में कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं है जिसकी ज़िंदगी में दुःख ना हो| हर व्यक्ति किसी ना किसी वजह से दुखी है| तो फिर क्यों हम अपने दुःख को लेकर चिंतित रहते हैं? फिर हमें ऐसा क्यों लगता है कि दुनिया के सारे गम हमारी ही ज़िंदगी में समा चुके हैं?

दरअसल सोचने के ढंग और देखने के नजरिये में फर्क के चलते हमें ऐसा महसूस नहीं हो पाता| आप दुनिया को अपनी नजर से देखने की कोशिश करते हैं, इसलिए आपको अपनी चिंता हमेशा सताती है| दुनिया को दुनिया की नज़र से देखने की कोशिश कीजिये तो दूसरों के गम भी नज़र आयेंगे फिर आपको यह लगेगा कि इस पृथ्वी पर जीवों को इतने कष्ट झेलने पड़ते हैं, इतना दुःख उठाना पड़ता है कि उसके सामने हमारा गम तो कुछ भी नहीं है| हम तो बेकार चिंतित हो रहे थे|

दूसरी बात यह भी है कि परिस्थितियों से ही आदमी मजबूत बनता है| अगर आपके ऊपर ग़मों का पहाड टुटा है तो झेलना आपको ही पड़ेगा कोई पडोसी दर्द बाँट नहीं सकता| सांत्वना के दो शब्द कहने वाले इस मतलबी दुनिया में मिल जाएँ तो आप सबसे भाग्यशाली व्यक्ति हैं| और अगर झेलना आपको ही है तो फिर उस चिंता में अपना भविष्य खराब क्यों किया जाये?

जब परिस्थितियाँ विपरीत हों तब हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि मानव सभ्यता के शुरुआत से आज तक जितने भी युगों में संसार को बांटा गया है, उनमे से किस युग में समस्याएं नहीं रही? भगवान विष्णु के दस अवतारों की गाथा हम धर्मग्रंथों - पुराणों में पढते हैं लेकिन उनमे एक भी ऐसा युग नहीं रहा जब लोगों को परेशानियां नहीं झेलनी पड़ी, दुःख नहीं उठाना पड़ा| स्वयं मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम को भी वनवास जैसे घोर संकट से गुजरना पड़ा उसके बाड़ भी कठिनाईयाँ कम नहीं हुई| कृष्ण को भी विरह वेदना की अग्नि में जलना पड़ा था| फिर हम और आप तो एक साधारण से मनुष्य हैं| ये संसार एक नदिया है और दुःख-सुख इसके किनारे हैं| यह आते रहेंगे जाते रहेंगे इसलिए हमें दुःख को भी खुशी से गले लगाना चाहिए| सच्चा बहादुर मनुष्य तो वही है जो विपरीत परिस्थितियों में भी अपना धैर्य नहीं खोता|

गिरिजेश कुमार

Friday, March 11, 2011

दरक रहे हैं विश्वास आधारित रिश्ते

आज देश में हर तरफ़ अशांति है, खून खराबा है, भाई –भाई से लड़ रहा है, दोस्त- दोस्त से लड़ रहा है, कहीं धर्म के नाम पर हत्याएं हो रही हैं, कहीं जाति के नाम पर लोग एक दूसरे के खून के प्यासे बने हुए हैं? समाज की ऐसी स्थति क्यों है? कोई धर्म में इतना अंधा हो गया है कि उसे दूसरे के धर्म में सिर्फ़ बुराइयां ही नज़र आती हैं, समाज को ईश्वर और अल्लाह में बांटने की कोशिश हो रही है| अमन पसंद लोग हैरान हैं, कुछ करना चाहते हैं, वापस अमन और शांति लाना चाहते हैं लेकिन मजबूर हैं| कभी सोचा है हम इतने मजबूर क्यों हैं? महिलाओं पर अत्याचार हो रहा है, लड़कियाँ अपने घर में भी महफूज़ नहीं हैं| विश्वास के रिश्ते दरक रहे हैं आखिर ऐसा क्यों है?

दरअसल यह स्थिति एक दिन में नहीं बनी| समाज में कुछ लोगों ने हमेशा से अपना वर्चस्व बनाये रखना चाहा| झूठे अस्तित्व की इस लड़ाई में आज तक समाज पिसता आ रहा है| वर्तमान में देश के राजनीतिक और सामाजिक हालात अंधेरों में कहीं अपना अस्तित्व तलाशते नज़र आ रहे हैं| हमारे सामने दिक्कत यह है कि हम आज तक अपने असली दुश्मन को पहचान नहीं सके| समाज में जो लोग अशांति फैलाना चाहते हैं उन्हें बेनकाब करना ज़रुरी है| ऐसे लोगों में सबसे ऊपर आते हैं वो लोग जो दो चेहरों के साथ जीते हैं| चेहरे पर नकाब ओढकर जिंदगी जीना जिनकी फितरत है| जो आपके मुह पर आपकी तारीफ और दूसरे के मुह पर उसकी तारीफ़ करते हैं| धर्म में अंधे होकर और परम्पराओं की दुहाई देकर सामाजिक सदभाव को बिगाडना जिनका लक्ष्य होता है| यहां सवाल हिंदू- मुस्लिम का नहीं है, सवाल पुरे मानव समाज का है| क्योंकि अंततः नुकसान मानव समाज का ही होता है|

एक और बात हमारी लड़ाई धर्मान्धता के खिलाफ नहीं होनी चाहिए, और ना ही हमें किसी को यह कहने का हक है कि आप अपना धर्म परिवर्तन कर लीजिए| हमारी लड़ाई उनलोगों से भी नहीं होनी चाहिए जो अपने धर्म को सर्वश्रेष्ठ बताकर लोगों के धार्मिक उन्माद को भडकाने की कोशिश करते हैं| ऐसे लोगों को हम नज़रंदाज़ कर सकते हैं| लेकिंन हमारी वास्तविक लड़ाई तो उस सिस्टम से होनी चाहिए जो ऐसे लोगों को पैदा करता है| हमें यह कतई नहीं भूलना चाहिए मनुष्य, एक सामाजिक व्यवस्था की उपज है| सामाजिक व्यवस्था जिस प्रकार की होगी उसमे रहने वाले लोग भी उसी मानसिकता से ग्रसित होंगे| इसलिए ऐसे लोग जो यह कहते हैं- वह व्यक्ति ऐसा कर रहा है इसलिए सबसे पहले उसे खत्म करना होगा| कदापि नहीं! अगर हम ऐसा करते हैं तो जाने अनजाने हम उसके काम का समर्थन करेंगे और इससे हमारा मूल उद्देश्य भटकने की प्रबल संभावना है| समस्या का समाधान ज़रुरी है लेकिन उससे भी ज़रुरी है जड़ से समाधान, ताकि फिर ऐसी स्थिति उत्पन्न ना हो|

आज ज़रूरत इस बात की है कि रिश्तों से विश्वास को दरकने से बचाने के ठोस प्रयास किये जाएँ| भावावेश में आकर फैसला ना लेते हुए सही और गलत कि पहचान की जाये| यह सच है कि कहना जितना आसान है करना उतना ही कठिन| हर कदम पर बाधाएँ खड़ी करने वाले लोग हैं लेकिन यह सोचकर हम चुप भी नहीं रह सकते| कवि दुष्यंत कुमार की लिखी हुई पंक्तियाँ याद आ रही हैं -

“हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए, इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए”

परिस्थितियां हमें इसी ओर इशारा कर रही हैं|

गिरिजेश कुमार