'जनसंदेश टाइम्स' मे प्रकाशित |
बदले हुए समाज मे प्यार के मायने भी बदल गए हैं| अब प्यार समर्पण और सादगी के लिए नही शरीर के लिए होता है| अगर इसका नाम ही आधुनिक होना है तो ऐसी आधुनिकता का मतलब क्या है? पश्चिमी सभ्यता की अंधी दौड़ मे हमने तथाकथित आधुनिकता की दुहाई देकर सिर्फ गलत चीजों को अपना लिया है| जिसका खामियाजा हमेशा से महिलाएं भुगतती रही हैं| हम अपनी सोच को बदलना ही नहीं चाहते|
आश्चर्य तब होता है जब पढ़े लिखे लोगों के संभ्रांत परिवारों मे ऐसी लोमहर्षक घटनाएँ सुनने को मिलती हैं| शिक्षित होने के बावजूद कैसे कोई लड़की इस समाज की गन्दी चालों को नहीं समझ पाती है और खुद की जान गँवा बैठती है? यह भी शोध का विषय है| इन सबमे सबसे ज्यादा दुखद यह है कि हमारा समाज ऐसी घटनाओं को भी होनी और भगवान की मंजूरी समझ कर सबकुछ स्वीकार कर लेता है| भाग्य मे लिखा हुआ कभी मिटता नहीं, जैसे आधारहीन और अविश्वासी तर्कों को मानकर हम सच और अपने अधिकार के लिए भी नहीं लड़ पाते जिसका नाजायज फायदा ऐसे कुकर्मों को अंजाम देने वाले उठाते हैं| इस विकट परिस्थितियों के मकड़जाल को काटने के लिए कौन सा हथियार इस्तेमाल किया जाए यह गंभीर विमर्श का विषय है?
एक तरफ़ सामाजिक अंतर्विरोध है, जहाँ लड़कियां बदनामी की डर से हर जुल्म को सहती रहती हैं, इसका खामियाजा माँ बाप को भी भुगतना पड़ता है, तो दूसरी तरफ सामाजिक विषमताएँ हैं जहाँ स्त्री-पुरुष के हर रिश्तों को शक की निगाह से देखा जाता है| विषमताओं और अंतर्विरोधों मे फँसा भारतीय समाज विकास की लकीर को वर्षों पीछे धकेल देता है और विडंबना यह कि खुद यह समाज भी इस चीज़ को समझ नहीं पाता है|
ज़रूरत इस बात की है कि समाज अपनी इन खामियों को पहचाने| समाज के प्रबुद्ध लोगों की भूमिका महत्वपूर्ण है| ताकि फिर कोई रोहित रिश्तों के क़त्ल की ऐसी हिमाकत न कर सके|
गिरिजेश कुमार