Wednesday, June 15, 2011

हमारी सोच का दायरा इतना सीमित क्यों है?

रिश्तों में प्यार नही, अहमियत रखता है पैसा

मनुष्य जब से पृथ्वी पर आया या कहें कि मनुष्य की उत्पत्ति जब से हुई तब से आज तक उसने अपने लिए तरक्की के हर रास्ते को अपनाने की कोशिश की| आदिम काल से आज तक विज्ञान से लेकर सामाजिक क्षेत्र में जितने भी आविष्कार हुए, ये उसी जिजीविषा का परिणाम है| मानव विकास के हर एक पीढ़ियों के अध्ययन से इस बात का पता चलता है कि हमने हमेशा से अपनी बेहतरी की बात सोची| इसी के परिणामस्वरुप समाजरूपी कॉन्सेप्ट आया और उसे सुचारू ढंग से संचालित करने के लिए नियम भी बनाये गए| समय बदला, हम तकनीकी तौर पर विकसित हुए, समाज विभिन्न वर्गों में बंटा लेकिन अफ़सोस कि सामाजिक संक्रमण का काल भी यहीं से शुरू होता है| जाति, लिंग, आर्थिक असमानता और न जाने किस-किस रूप में इस समाज ने अपने ही विनाश की बुनियाद खड़ी कर दी| चलते-चलते हम २१वीं सदी में पहुँच गए लेकिन हमारी मानसिक सोच का दायरा विकसित होने से महरूम रह गया| हमने विकास और तरक्की के नए आयाम तो ढूंढ़ लिए लेकिन अपनी सोच को उतना ही संकीर्ण रखा जब लड़कियाँ दूसरों के घर के लिए होती थी और महिलाओं को उपभोग की वस्तु समझा जाता था|

ये स्थिति दरअसल आज भी बनी हुई है| वर्तमान भारतीय समाज अभी भी उन रूढ़िवादी विचारों से ऊपर नहीं उठ पाया है जब लड़कियों और महिलाओं को समाज में खुलेआम घूमने, अपने विचार रखने की आजादी नहीं थी| जवान लड़की पिता की चिंता का कारण होती थी और उसे प्राथमिक शिक्षा से भी वंचित रखा जाता था| आज भी आप अगर आम भारतीय परिवारों के घर जाएँ खासकर उनके घर जिनके घर शादी के लायक लड़की है, तो उनका ज्यादातर समय इसी बात पर विचार करने में कटता है कि ये शादी कैसे होगी? अभी भी लड़की के पिता को लड़के वालों के यहाँ हाथ फैलाते हुए देखा जाता है और कहते सुना जा सकता है कि आप मेरी बेटी का उद्धार कर दीजिए, जैसे वो इश्वर से भी बड़े हों| और शादी भी तय होती है तो पैसों के लेनदेन पर| यानि रिश्तों में प्यार, सद्भाव नहीं पैसा अहमियत रखता है|

कारण है कि हमने अपने घर की लड़कियों को अपनी जिंदगी के फैसले लेने का अधिकार नहीं दिया| पुरुषप्रधान मानसिकता के चंगुल में जकड़े रखा| अंतरजातीय विवाहों को मान्यता नहीं दी और गलती से भी किसी ने ऐसा करने की हिम्मत दिखाई तो उसे सजा-ए-मौत का फरमान सुना दिया गया| अभी बिहार में इंटर की परीक्षाओं में 44 में 40 लड़कियों ने टॉप किया, सुनकर अच्छा लगा| किसी ने आई ए एस बनने की इच्छा ज़ाहिर की तो किसी ने प्रोफ़ेसर| अख़बारों के बैनर हेडलाइन बने और बड़े-बड़े अक्षरों में तारीफ़ के पुल बंधे गए लेकिन क्या इन प्रतिभाओं को निखरने का मौका मिलगा? बड़ा सवाल यही है| इसमें कोई शक नहीं है इनमे ज्यादातर की जिंदगी पति, परिवार और बच्चों की देखभाल करने में बीते क्योंकि हम यह समझते हैं कि लड़कियों का काम सिर्फ़ बच्चे पैदा करना है| ये स्थिति सिर्फ़ गांवों की नहीं है जहाँ ज्यादातर लोग अशिक्षित होते हैं| ये स्थिति उन शहरों में रहने वाले मध्यमवर्गीय परिवारों की भी है जिन्हें हम शिक्षित मानते हैं और खुले विचार रखनेवालों की श्रेंणी में रखते हैं|

खून के रिश्ते भी अस्तित्वहीन पैसों की बुनियाद पर तौले जाते हैं| इसलिए भाई-भाई का दुश्मन बना हुआ है और हमें अपने ही परिवार की तरक्की रास नहीं आती| यानि परम्पराओं में कैद रहकर हम अपने ही रिश्तों का क़त्ल उन पैसों के लिए करना चाहते हैं जिसका वास्तव में कोई अस्तित्व ही नहीं है| आखिर क्यों करते हैं हम ऐसा? और सबसे महत्वपूर्ण सवाल ये कि क्या हम और हमारा समाज इन तमाम अवरोधों को पारकर एक स्वस्थ, सुसज्जित और सुन्दर समाज में तब्दील हो पायेगा, जिसमे ऐसी घटिया और निम्नस्तरीय सोच के लिए कोई जगह न हो? आपकी भूमिका महत्वपूर्ण है|

गिरिजेश कुमार

4 comments:

  1. विचारणीय लेख...
    मात्र कहने से कुछ नहीं होता , हमें इन बातों को अपने असल जीवन में उतारना होगा |

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  2. सुरेन्द्र जी, मैं वही लिखता हूँ जो करता हूँ, जिन्हें मैं खुद नहीं करता वह लिखता ही नहीं| रही बात उपरोक्त समस्याओं की तो कोई जादू की छड़ी किसी के पास नहीं है, एक कदम आप चलिए एक कदम हम चलेंगे मंजिल मिल जायेगी| कहने का तात्पर्य यही था|

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  3. बहुत गहरी बात कह गये आप।

    अच्‍छा लगता है आपके विचारों से रूबरू होना।

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    ब्‍लॉग समीक्षा की 20वीं कड़ी...
    आई साइबोर्ग, नैतिकता की धज्जियाँ...

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  4. aapki post bata rahi hai ki aapke vichar bahut achchhe hain .in vicharon ko vastvikta me parivartit karne ke liye ham sabhi ko apne me sudhar karne honge -ye sachchai hai .best of luck

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