Sunday, December 4, 2011

सहनशीलता बुज़दिली नहीं है

 ज़िन्दगी की अनसुलझी पहेलियों के बीच खुद को तलाश करती उम्मीदें, इन उम्मीदों को पूरा करने की ख्वाहिश और इन सबके बीच अकेलेपन से जूझते इंसान का अंतर्मन। कभी-कभी हताश भी हो जाता है।अपने आसपास वह ऐसे लोगों को ढूंढता है जिसको वह अपना कह सके। जो उसे समझ सके, उसके अंतर्मन में मची हलचल को समझ सके, लेकिन दुर्भाग्य है कि इस मतलबी दुनिया में ऐसे लोग कम ही मिलते हैं। लिहाजा अकेलेपन की टीस उसे सालती है। ‘भीड़ में अकेला रहना सीखो’ जैसी नीतिगत बातें सुनने में भले ही अच्छी लगती हों, और हो सकता है कि यह सच भी हो लेकिन वास्तविक जीवन में उसे उतार पाना इतना आसान नहीं होता। हममें से हर कोई भीड़ में एक साथी की तलाश करता है जिसके कन्धों पर सर रखकर वह इत्मीनान से सो सके। इसे इंसानी फ़ितरत कहें या  उसका स्वभाव, होता यही है। लेकिन सवाल यह नहीं है सवाल यह है कि जिस कंधे पर सर रखकर आप इत्मीनान से सो रहे हैं,वह कंधा अचानक से हट जाए तो क्या करें? कुछ लोग कहते हैं कन्धों की कमी नहीं है, दूसरा ढूंढ लेना चाहिए। लेकिन यह इतना आसान नहीं होता।
इस तस्वीर का दूसरा पहलु भी है जब कोई इंसान अपने ही द्वारा बनाए गए रिश्तों के टूटने से लगे झटके से उबरने की कोशिश करता है तो उसे समझौतों का सहारा लेना पड़ता है। ये समझौते कभी-कभी उन गलतियों के लिए भी माफ़ी मंगवा देते हैं जो उसने की ही नहीं। ऐसा करना चाहिए या नहीं यह अलग सवाल है। यहीं परख होती है उस इंसान के सहनशीलता की। अपने ऊपर लगे आरोपों का किस धैर्य के साथ आप जवाब देते हैं उसकी पहचान यहीं होती है। लेकिन सवाल है अगर कोई व्यक्ति अपमान, ज़िल्लत, जलालत, निंदा, शिकायत सबकुछ सुनकर और समझकर भी चुप रहता है तो क्या वह बुज़दिल है? इस दुनिया के  अमान्यकारी नियमों के बंधन उस व्यक्ति की सहनशीलता को बुज़दिली की संज्ञा देता हैं। अकेलेपन और एकाकीपन से हर आदमी को डर लगता है। इस डर से घबराकर अगर कोई सबकुछ सहन करता है तो वह बुज़दिल नहीं है। मनुष्य सामाजिक प्राणी है और समाज से कटकर जीना उसके लिए संभव नहीं है। हालाँकि सहनशील होने का यह मतलब कतई नहीं है वह कुछ कर नहीं सकता। लेकिन इस सच को जानना बहुत कम लोग चाहते हैं।
दरअसल यहाँ हर कोई खुद को श्रेष्ठ साबित करना चाहता है। अपनी काबिलियत पर गौर किये बिना बड़ा बनने का सपना देखना बुरी बात नहीं लेकिन उसे पाने के जो हथकंडे अपनाए जाते हैं,प्रश्नचिन्ह उसपर लगता है। और इसका सबसे दुखद पहलु तब होता है जब ये इंसानी रिश्तों को झकझोरते हैं।
हर इंसान प्यार चाहता है। सबकी चाहत होती है कि कोई उसे प्यार करे। लेकिन साथ ही प्यार में निःस्वार्थता भी होनी चाहिए। यही चीज़ इंसानों को जानवरों से अलग करती है लेकिन बड़े ही अफ़सोस के साथ इस कड़वे सच को स्वीकार करना पड़ रहा है कि वर्तमान सामाजिक अवधारणा में प्यार के जो मायने हैं वह जानवरों से भी बदतर हैं। उसपर से दुर्भाग्यपूर्ण ये कि इंसानी समाज को इसमें कोई आपत्ति नहीं है। लेकिन लाख टके का सवाल यह है कि अपनों तक सीमित सोच और उसमे भी वैमनस्य का वर्चस्व हो तो मनुष्य क्या वास्तव में मनुष्य कहलाने लायक है?
गिरिजेश कुमार

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