Tuesday, January 18, 2011

मध्यमवर्गीय परिवार का सच

दुनिया की नज़रों में भले ही हम वैश्विक शक्ति के रूप में उभर रहे हों, दुनिया भले ही हमें एक महाशक्ति के रूप में देख रही हो लेकिन ज़मीनी सच्चाई इससे कहीं हटकर है| गरीबों का देश भारत आज भी उन्ही मजबूरियों और विवशताओं के बीच रहने को विवश है जो आज से वर्षों पहले थी और जिस समय हमने नए भारत के निर्माण का सपना देखा था|

ठण्ड की छुट्टियों में मुझे जाना तो कहीं और था लेकिन कुछ कारणों से वह कार्यक्रम मुझे स्थगित कर देना पड़ा| कहते हैं उम्र आदमी को जिम्मेदार बना देता है और ज़िम्मेदारी मनुष्य को जीने की कला सिखा देता है| इस चीज़ का एहसास एक मध्यमवर्गीय परिवार को देखने से होता है|

ये सच है कि अभी भी भारत में ज्यादातर लोग या तो गरीब हैं या मध्यमवर्गीय परिवार से आते हैं| जहाँ घर कोई नई चीज़ कौतुहल का विषय बन जाता है| अमीर घरों में जहाँ मोबाइल, टी वी, फ्रिज जैसी चीजें खिलौना बन चुकी हैं वहीँ एकक मध्यमवर्गीय परिवार के लिए यह किसी वरदान से कम नहीं|

एक और चीज़ देखने को मिलती है| समझौता करने की कला| बड़ी गजब की सहनशक्ति होती है| जहाँ बड़े लोग छोटी- छोटी चीजों के लिए एक दूसरे के जान के दुश्मन बन जाते हैं वहीँ इन घरों में ऐसी कोई बात नहीं है| अगर कपडे नही हैं तो मैनेज कर लेते हैं| एक मोबाइल है तो घर के सब सदस्य बारी बारी से उसे उपयोग करेंगे| मुंशी प्रेमचंद के उपन्यास ‘गोदान’ का होरी भाग्य और भगवान के भरोसे जिस तरह से अपनी पूरी जिंदगी बिता देता है उसी तरह एक मध्यमवर्गीय परिवार शायद इन सबके लिए भाग्य को ही दोषी मानता है| इसलिए कभी आप उनके मुंह से आह नहीं सुनेगे| तमन्ना ज़रूर रहती है कि काश हमरे पास भी ऐशो आराम की सुविधाएँ रहती तो अच्छा रहता! लेकिन शायद वो इसमें ही खुश रहन पसंद करते हैं|

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